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ब्रिटेन में प्रवासन का मुद्दा अब सड़कों पर फूट चुका है। हाल के महीनों में हुए बड़े प्रदर्शनों ने यह साफ़ कर दिया है कि जनता का धैर्य जवाब दे रहा है। लंदन का “यूनाइट द किंगडम” मार्च इसका उदाहरण था, जिसमें एक लाख से अधिक लोग शामिल हुए। इस रैली का नेतृत्व टॉमी रॉबिन्सन ने किया, जो अब इस आंदोलन का प्रमुख चेहरा बन चुके हैं।
प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर की लेबर पार्टी सरकार पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि वह प्रवासियों के प्रति जानबूझकर नरमी बरत रही है। विरोधियों का कहना है कि सरकार इन प्रवासियों को केवल शरणार्थी या मानवीय संकट के रूप में नहीं देखती, बल्कि उन्हें अपने भविष्य के वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल कर रही है।
प्रदर्शनकारियों का गुस्सा विशेष रूप से पाकिस्तानी मूल के मुस्लिम प्रवासियों पर केंद्रित रहा है। आरोप है कि इन समुदायों के कुछ संगठित गिरोह धर्मांतरण गतिविधियों और बाल यौन अपराधों में शामिल रहे हैं। कई प्रदर्शनकारियों का कहना है कि इन घटनाओं पर सरकार और मुख्यधारा मीडिया ने जानबूझकर चुप्पी साध ली है।
हालाँकि, मानवाधिकार संगठनों का तर्क है कि ऐसी घटनाएँ कुछ व्यक्तियों से जुड़ी हो सकती हैं, लेकिन पूरे समुदाय को कटघरे में खड़ा करना अनुचित और खतरनाक है। इसके बावजूद, इन मुद्दों ने जनता के असंतोष को और भड़का दिया है और सड़कों पर भीड़ खींचने में बड़ी भूमिका निभाई है।
रैलियों में “ब्रिटेन को बचाओ” जैसे नारे और बढ़ते झंडों का समुद्र दिखाता है कि यह आंदोलन अब हाशिए का नहीं रहा। नई पार्टियाँ जैसे एडवांस यूके इस लहर को राजनीतिक ताक़त में बदलने की कोशिश कर रही हैं। वे खुद को उन दलों से अलग बताती हैं जो “सिर्फ़ बात” करते हैं और जनता को “वास्तविक कार्रवाई” का वादा करती हैं।
हालाँकि आंदोलनों को व्यापक समर्थन मिल रहा है, लेकिन कई जगह हिंसा और झड़पें भी हुईं। पुलिस बल के साथ टकराव और विरोधी समूहों के बीच झड़पों ने चिंता बढ़ा दी है। साथ ही अल्पसंख्यक समुदायों में असुरक्षा की भावना गहराती जा रही है।
इस बहस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तब और सुर्खियाँ मिलीं जब टेक उद्यमी एलन मस्क ने सोशल मीडिया मंच एक्स पर ब्रिटेन की प्रवासन नीति को ढीला बताते हुए इसकी आलोचना की। हालाँकि आंदोलन की असली ताक़त घरेलू असंतोष और स्थानीय नेतृत्व से ही आ रही है, लेकिन उनकी टिप्पणियों ने इसे वैश्विक मीडिया की नज़र में ला दिया।
ब्रिटेन अब एक चौराहे पर है। एक ओर जनता कड़े क़दमों की माँग कर रही है, दूसरी ओर लेबर सरकार पर वोट बैंक की राजनीति करने के आरोप लग रहे हैं। अगर सरकार निर्णायक कार्रवाई नहीं करती, तो यह आंदोलन और तेज़ हो सकता है और नई पार्टियों को राजनीतिक फ़ायदा पहुँचा सकता है।
आने वाले दिनों में तय होगा कि ब्रिटेन अपनी सीमाओं और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करता है या फिर राजनीतिक लाभ के लिए दरवाज़े और ज़्यादा खोल देता है।
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