भारत के न्यायपालिका तंत्र में सर्वोच्च न्यायालय की एक विशेष भूमिका रही है। संविधान ने न्यायपालिका को स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्था के रूप में देखा है ताकि कार्यपालिका और विधायिका पर अंकुश लगाया जा सके और नागरिकों के अधिकार सुरक्षित रह सकें। लेकिन जब हम न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रणाली की बात करते हैं तो यह प्रश्न बार-बार उठता है कि क्या वास्तव में इस प्रक्रिया में लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन होता है या नहीं। आज भारत में उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति कोलेजियम प्रणाली से होती है। यह व्यवस्था न्यायपालिका के अंदरूनी निर्णयों पर आधारित है, जहाँ शीर्ष न्यायाधीश आपस में विचार-विमर्श करके नए न्यायाधीशों का चयन और स्थानांतरण तय करते हैं। इस प्रक्रिया में न तो संसद की सीधी भागीदारी होती है और न ही जनता द्वारा चुनी गई सरकार की निर्णायक भूमिका रहती है। यही कारण है कि कई लोग इसे लोकतांत्रिक पद्धति के विपरीत मानते हैं।
लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है कि सत्ता जनता से निकलती है और उसका संचालन पारदर्शिता और जवाबदेही के आधार पर होना चाहिए। लेकिन कोलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता की कमी स्पष्ट दिखाई देती है। आम जनता तो दूर, यहाँ तक कि संसद और कार्यपालिका को भी अक्सर यह पता नहीं चलता कि किस आधार पर किसे न्यायाधीश नियुक्त किया गया है। प्रक्रिया पूरी तरह गोपनीय रहती है और नामों की अनुशंसा एक सीमित समूह के भीतर तय हो जाती है। इससे यह शंका पैदा होती है कि क्या इस तरह की नियुक्तियाँ न्याय और योग्यता पर आधारित हैं या फिर निजी पसंद और आंतरिक दबाव का परिणाम। लोकतांत्रिक प्रणाली में जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं को ऐसे महत्वपूर्ण निर्णयों में शामिल होना चाहिए, लेकिन कोलेजियम प्रणाली इस बुनियादी सिद्धांत को नज़रअंदाज़ करती है।
इसके साथ-साथ एक और बड़ा प्रश्न यह उठता है कि कोलेजियम व्यवस्था कहीं-न-कहीं सरकार की कार्यप्रणाली में भी दखल देने लगी है। जब सर्वोच्च न्यायालय बार-बार सरकार की नियुक्तियों को रोकता है, या कार्यपालिका के निर्णयों पर अपनी शर्तें थोपता है, तो यह स्थिति लोकतांत्रिक ढाँचे के संतुलन को प्रभावित करती है। लोकतंत्र में शक्तियों का विभाजन अवश्य है, लेकिन यह विभाजन परस्पर सहयोग और संतुलन पर आधारित होता है। यदि न्यायपालिका यह मान ले कि वही सर्वोच्च है और उसे जनता द्वारा चुनी गई सरकार के अधिकारों की अनदेखी करने का पूरा हक है, तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में असंतुलन पैदा करता है। सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है और उसे अपने निर्णयों के लिए जनता के प्रति जवाबदेह होना पड़ता है, लेकिन न्यायपालिका जनता को सीधे जवाब नहीं देती। ऐसे में यदि न्यायपालिका अपनी शक्ति का अत्यधिक प्रयोग करने लगे तो यह लोकतांत्रिक आत्मा को कमजोर कर सकता है।
कोलेजियम प्रणाली के समर्थक यह तर्क देते हैं कि यदि न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका या संसद की निर्णायक भूमिका हो तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर खतरा आ सकता है। उनका मानना है कि सरकार न्यायाधीशों को अपने अनुकूल चुन सकती है और इससे न्यायपालिका पर राजनीतिक दबाव बढ़ जाएगा। लेकिन इस तर्क में यह बात भुला दी जाती है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता द्वारा चुनी गई संस्थाएँ ही अंतिम निर्णय का अधिकार रखती हैं। यदि न्यायपालिका को पूरी तरह आत्मनिर्भर और बंद व्यवस्था में छोड़ दिया जाए तो वह भी जवाबदेही से बच सकती है। असल सवाल यह है कि स्वतंत्रता और जवाबदेही दोनों के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए। लोकतंत्र में स्वतंत्रता का अर्थ मनमानी नहीं होता, बल्कि यह पारदर्शिता और जनता के विश्वास पर आधारित होना चाहिए।
वास्तविकता यह है कि कोलेजियम प्रणाली को लेकर खुद सर्वोच्च न्यायालय के भीतर भी असहमति की आवाजें उठी हैं। कई पूर्व न्यायाधीशों ने इसे अपारदर्शी और आत्मकेन्द्रित करार दिया है। सरकार ने भी समय-समय पर इसे बदलने का प्रयास किया, जैसे एनजेएसी (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग) की स्थापना की गई थी। लेकिन न्यायपालिका ने स्वयं उसे असंवैधानिक ठहराकर रद्द कर दिया। यह निर्णय अपने आप में इस बात को दिखाता है कि न्यायपालिका न केवल अपनी नियुक्ति प्रक्रिया तय कर रही है बल्कि सरकार और संसद की भूमिका को भी दरकिनार कर रही है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब संसद जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है तो उसकी भूमिका को शून्य कर देना कितना उचित है। क्या यह लोकतांत्रिक परंपराओं के विपरीत नहीं है?
कोलेजियम प्रणाली की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह जनता से पूरी तरह कटे हुए घेरे में काम करती है। आम नागरिक को यह अधिकार नहीं है कि वह जाने किस आधार पर न्यायाधीश चुने जा रहे हैं। जबकि न्यायाधीश वही लोग हैं जो आने वाले वर्षों तक देश की नीतियों और नागरिकों के अधिकारों पर निर्णायक असर डालेंगे। यदि उनका चयन गुप्त ढंग से होगा तो जनता के बीच विश्वास की कमी पैदा होगी। लोकतंत्र का आधार विश्वास और पारदर्शिता पर ही टिका होता है। जब जनता देखती है कि उसके द्वारा चुनी गई सरकार किन्हीं विषयों पर फैसला नहीं कर पा रही क्योंकि न्यायपालिका ने उन्हें रोक दिया है, तो असंतोष बढ़ना स्वाभाविक है। इससे न केवल सरकार की कार्यकुशलता पर सवाल उठते हैं बल्कि लोकतांत्रिक प्रणाली की मजबूती पर भी आंच आती है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में सुधार हो। यह सुधार ऐसा होना चाहिए जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखे लेकिन साथ ही लोकतांत्रिक जवाबदेही और पारदर्शिता को भी सुनिश्चित करे। केवल न्यायाधीश आपस में निर्णय लें, यह व्यवस्था लोकतंत्र की आत्मा के अनुकूल नहीं है। जनता द्वारा चुनी गई सरकार और संसद को भी इसमें उचित भागीदारी मिलनी चाहिए। तभी यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों मिलकर देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को सशक्त कर रहे हैं। यदि यह संतुलन नहीं बनेगा तो न्यायपालिका का अति-सक्रिय होना और कार्यपालिका के अधिकारों में हस्तक्षेप करना लोकतंत्र को कमजोर ही करेगा।
इसलिए, सुप्रीम कोर्ट की कोलेजियम प्रणाली पर गंभीर बहस की आवश्यकता है। लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुसार हर संस्था को अपनी सीमाओं के भीतर रहते हुए पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ काम करना चाहिए। न्यायपालिका को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसकी शक्ति भी संविधान और जनता की संप्रभुता से आती है। यदि वह जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार को बार-बार नज़रअंदाज़ करेगी, तो लोकतंत्र का संतुलन टूटेगा और संस्थाओं के बीच टकराव बढ़ेगा। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब न्यायपालिका स्वतंत्र भी रहे और जनता के प्रति जवाबदेह भी। कोलेजियम प्रणाली इस दिशा में एक अधूरा और विवादास्पद प्रयोग साबित हो रही है, जिसे समय रहते सुधारने की ज़रूरत है ताकि भारतीय लोकतंत्र वास्तव में जनता की आकांक्षाओं का प्रतिबिंब बन सके।
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