नई दिल्ली। रियाद में हाल ही में
हुए सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच “स्ट्रैटेजिक म्युचुअल डिफेंस एग्रीमेंट” ने दक्षिण एशिया और
मध्य-पूर्व की राजनीति में हलचल मचा दी है। समझौते की शर्तों के मुताबिक, यदि किसी
एक देश पर हमला होता है तो उसे दोनों पर हमला माना जाएगा और वे संयुक्त रूप से उसका
जवाब देंगे। यह कदम ऐसे समय आया है जब पहले से ही भारत-पाक रिश्ते तनावपूर्ण हैं और
मध्य-पूर्व कई तरह के सुरक्षा संकटों से जूझ रहा है।
भारत ने इस समझौते पर
औपचारिक प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि वह इसके निहितार्थों का बारीकी से अध्ययन करेगा
और राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर आवश्यक कदम उठाएगा। विदेश मंत्रालय के सूत्रों का कहना
है कि भारत सऊदी अरब से अपेक्षा करता है कि वह उसकी संवेदनशीलताओं का सम्मान करेगा,
क्योंकि दोनों देशों के बीच ऊर्जा, निवेश और प्रवासी भारतीयों के कारण गहरे संबंध हैं।
लेकिन फिर भी इस समझौते ने रणनीतिक हलकों में सवाल खड़े कर दिए हैं कि क्या अब भारत
को अपने सुरक्षा समीकरण नए सिरे से तय करने होंगे।
सबसे बड़ी चिंता इस
बात की है कि पाकिस्तान परमाणु शक्ति सम्पन्न है और लंबे समय से यह आशंका जताई जाती
रही है कि सऊदी अरब उसकी क्षमताओं से अप्रत्यक्ष लाभ लेना चाहता है। यदि रक्षा समझौते
में किसी तरह का परमाणु छाया प्रावधान जुड़ा है, तो यह दक्षिण एशिया के परमाणु संतुलन
को अस्थिर कर सकता है। ऐसे हालात में भारत को अपने रक्षा ढाँचे और निरोधक क्षमता को
और मज़बूत करना पड़ सकता है।
वैश्विक स्तर पर भी
इस समझौते ने हलचल पैदा की है। अमेरिका ने इसे सतर्कता के साथ लिया है। वॉशिंगटन का
कहना है कि उसे उम्मीद है यह समझौता क्षेत्रीय स्थिरता के लिए होगा, न कि किसी नए संघर्ष
का कारण बनेगा। अमेरिकी विशेषज्ञों का मानना है कि यह एग्रीमेंट सऊदी अरब की उस बेचैनी
को दर्शाता है जो उसे अमेरिका की घटती सुरक्षा प्रतिबद्धताओं को लेकर है। मध्य-पूर्व
में अमेरिका अब उतना सक्रिय नहीं है जितना पहले था, और यही वजह है कि रियाद वैकल्पिक
साझेदार तलाश रहा है।
रूस की प्रतिक्रिया
अपेक्षाकृत सकारात्मक रही। मॉस्को ने कहा कि यह दो संप्रभु देशों का अधिकार है और इससे
क्षेत्रीय सुरक्षा ढाँचा बहुआयामी होगा। रूस पहले ही सऊदी अरब के साथ ऊर्जा सहयोग बढ़ा
चुका है और पाकिस्तान के साथ रक्षा व तकनीकी साझेदारी की संभावनाएँ तलाश रहा है। ऐसे
में यह समझौता रूस के लिए अमेरिका के प्रभाव को चुनौती देने का अवसर भी है।
अब सवाल उठता है कि
अगर कल को भारत और पाकिस्तान के बीच कोई बड़ा सैन्य संघर्ष होता है और उसमें सऊदी अरब
भी पाकिस्तान के पक्ष में कूद पड़ता है, तो क्या रूस भारत की मदद करेगा? रणनीतिक विशेषज्ञ
मानते हैं कि रूस खुले युद्ध में भारत की सैन्य सहायता करने से बचेगा, क्योंकि उसका
पाकिस्तान और सऊदी अरब दोनों के साथ ऊर्जा और रक्षा सहयोग बढ़ रहा है। लेकिन यह भी
सच है कि रूस भारत का पारंपरिक रक्षा साझेदार है और दशकों से उसने भारत को अत्याधुनिक
हथियार और तकनीक दी है। इसलिए प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप की बजाय रूस भारत को कूटनीतिक
समर्थन और हथियार आपूर्ति के माध्यम से सहयोग कर सकता है। यानी, मॉस्को भारत और पाकिस्तान
दोनों के साथ संतुलन साधने की कोशिश करेगा ताकि उसके हित किसी भी स्थिति में सुरक्षित
रहें।
इसी बीच इज़रायल की
स्थिति भी दिलचस्प है। पश्चिम एशिया में इज़रायल और सऊदी अरब के बीच हाल के वर्षों
में संबंध सामान्य करने की चर्चा चल रही थी। लेकिन पाकिस्तान के साथ यह रक्षा समझौता
उन प्रयासों को जटिल बना सकता है। इज़रायल की सुरक्षा नीति हमेशा ईरान और उसके सहयोगियों
पर केंद्रित रही है, जबकि पाकिस्तान के साथ उसके सीधे रिश्ते लगभग न के बराबर हैं।
इज़रायल को यह चिंता सता सकती है कि यदि सऊदी अरब पाकिस्तान के साथ गहरे रक्षा सहयोग
में उतरता है और उसमें परमाणु तत्व जुड़ता है, तो भविष्य में यह सहयोग अप्रत्यक्ष रूप
से ईरान-विरोधी संतुलन को कमजोर कर सकता है। दूसरी ओर, यह भी संभव है कि इज़रायल इस
स्थिति का उपयोग भारत के साथ अपने रक्षा और तकनीकी सहयोग को और बढ़ाने में करे, क्योंकि
भारत और इज़रायल दोनों पाकिस्तान की सैन्य क्षमताओं पर समान रूप से चौकन्ने हैं।
चीन की भूमिका भी इस
पूरे परिदृश्य में छिपी हुई है। पाकिस्तान चीन का “ऑल वेदर पार्टनर” है और सऊदी अरब भी ऊर्जा
निवेश और बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव के ज़रिए चीन से नज़दीकी बढ़ा रहा है। ऐसे में यह
समझौता अमेरिका, भारत और इज़रायल के लिए यह संदेश है कि इस्लामी दुनिया के बड़े देश
अब पश्चिमी सुरक्षा गारंटी पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहना चाहते।
भारत के लिए इस स्थिति
से निपटना आसान नहीं होगा। उसे एक तरफ सऊदी अरब जैसे ऊर्जा साझेदार से रिश्ते बनाए
रखने हैं और दूसरी तरफ पाकिस्तान के साथ बढ़ते उसके रक्षा संबंधों से सतर्क भी रहना
है। कूटनीतिक मोर्चे पर भारत को संतुलन साधना होगा ताकि रियाद उसकी चिंताओं को दरकिनार
न कर सके। साथ ही रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता, खुफिया क्षमता और तकनीकी बढ़त हासिल
करना और भी ज़रूरी हो जाएगा।
आर्थिक दृष्टि से भारत
को अपनी निर्भरता के दायरे को और विविध बनाना होगा। ऊर्जा, व्यापार और निवेश के क्षेत्र
में ऐसे विकल्प तैयार करने होंगे ताकि किसी भी राजनीतिक दबाव की स्थिति में भारत को
झटका न लगे। वहीं बहुपक्षीय मंचों जैसे संयुक्त राष्ट्र, जी20 और क्षेत्रीय सुरक्षा
संवादों में सक्रिय भूमिका निभाकर भारत यह संदेश दे सकता है कि ऐसे रक्षा समझौते शांति
और स्थिरता को बढ़ावा दें, न कि नए संघर्ष की ज़मीन तैयार करें।
निष्कर्षतः, सऊदी अरब और पाकिस्तान का यह रक्षा समझौता केवल एक द्विपक्षीय कदम नहीं है, बल्कि यह वैश्विक राजनीति में हो रहे बड़े बदलावों का संकेत है। अमेरिका की घटती भूमिका, रूस और चीन का बढ़ता प्रभाव, इज़रायल की सुरक्षा चिंताएँ और इस्लामी दुनिया के अंदर नए गठबंधन—इन सबका असर आने वाले वर्षों में साफ दिखेगा। भारत के लिए यह चुनौती भी है और अवसर भी। अगर वह अपनी कूटनीति और रक्षा रणनीति को चतुराई से संतुलित करता है, तो इस नए समीकरण को अपने हित में मोड़ सकता है। लेकिन अगर वह ढिलाई बरतता है, तो यह समझौता दक्षिण एशिया और मध्य-पूर्व की सुरक्षा संरचना पर गहरा असर डाल सकता है और किसी अप्रत्याशित संघर्ष की संभावना को बढ़ा सकता है।
Social Plugin