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फ्रांस इन दिनों अशांति और गुस्से के दौर से गुजर रहा है। पेरिस की गलियों से लेकर मार्सेइय, लियोन और बोर्डो जैसे शहरों तक हर जगह लोगों का सैलाब दिखाई दे रहा है। कहीं हजारों लोग हाथों में बैनर लिए शांतिपूर्ण मार्च कर रहे हैं, तो कहीं गुस्साई भीड़ बैरिकेड्स खड़ी कर रही है और टायरों को आग लगा रही है। कई जगह ट्रेनें रोकी गईं, सड़कों पर जाम लग गया और सामान्य ज़िंदगी अस्त-व्यस्त हो गई। सरकार ने हालात संभालने के लिए करीब अस्सी हज़ार पुलिसकर्मियों की तैनाती की है, लेकिन हालात अब भी तनावपूर्ण बने हुए हैं।
दरअसल, जनता का यह गुस्सा हाल में घोषित सरकारी नीतियों से जुड़ा है। सरकार ने बजट घाटे को कम करने के लिए सार्वजनिक खर्च में बड़े पैमाने पर कटौती की योजना बनाई है। इसका असर सीधे-सीधे शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन जैसी ज़रूरी सेवाओं पर पड़ेगा। इसके अलावा सार्वजनिक छुट्टियों में कटौती जैसे प्रस्तावों ने भी लोगों की नाराज़गी और बढ़ा दी। पहले से ही महँगाई और बेरोज़गारी झेल रहे आम लोग इसे अपनी मुश्किलों पर और बोझ डालने के बराबर मानते हैं।
“Block Everything” नाम से शुरू हुआ यह आंदोलन सिर्फ एक नारा नहीं रह गया है, बल्कि अब यह जनता की हताशा और गुस्से का प्रतीक बन गया है। आंदोलन में शामिल लोग कहते हैं कि जब तक सरकार उनकी बात नहीं सुनेगी, वे सड़कों से हटेंगे नहीं। उनकी नज़र में यह सिर्फ आर्थिक सुधार नहीं, बल्कि उनके भविष्य और सम्मान पर हमला है।
सड़कों पर मौजूद लोगों की कहानियाँ सुनने पर यह और साफ़ हो जाता है। पेंशन पर गुज़ारा करने वाली एक बुज़ुर्ग महिला कहती हैं, “हम पहले ही जैसे-तैसे जी रहे हैं, अब अगर अस्पताल और दवाइयाँ भी महँगी हो गईं तो हम कैसे जियेंगे?” वहीं विश्वविद्यालय का एक छात्र कहता है, “हम पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी के सपने देखते हैं, लेकिन मौक़े लगातार घट रहे हैं। सरकार हमसे हमारे सपने छीन रही है।” छोटे व्यापारी भी चिंतित हैं कि छुट्टियों और सार्वजनिक सेवाओं पर असर पड़ा तो उनकी आय पर सीधा प्रहार होगा।
नए प्रधानमंत्री सेबास्टियन लेकोर्नू के लिए यह हालात किसी अग्नि-परीक्षा से कम नहीं हैं। सत्ता संभालते ही उन्हें जनता के गुस्से और सड़कों पर फैलती अराजकता से जूझना पड़ रहा है। सरकार का कहना है कि खर्च में कटौती देश की वित्तीय स्थिरता के लिए ज़रूरी है और यही भविष्य में विकास का रास्ता खोलेगा। लेकिन जनता इसे अपनी पीठ पर लादा गया नया बोझ मान रही है, जिसका असर उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर पड़ रहा है।
फ्रांस की यह स्थिति केवल आर्थिक नीतियों का विरोध भर नहीं है। यह उस असंतोष का विस्फोट है जो वर्षों से धीरे-धीरे लोगों के भीतर जमा हो रहा था। यह गुस्सा हमें यह याद दिलाता है कि जब तक नीतियाँ जनता की ज़रूरतों और संघर्षों को ध्यान में रखकर नहीं बनेंगी, तब तक अशांति बढ़ती ही जाएगी।
आने वाले दिनों में हालात किस ओर जाएंगे, यह सरकार के रवैये पर निर्भर करेगा। अगर संवाद और सहानुभूति से रास्ता निकाला गया, तो हालात काबू में आ सकते हैं। लेकिन अगर जनता की आवाज़ को नज़रअंदाज़ किया गया, तो यह आंदोलन और भी व्यापक हो सकता है और फ्रांस की राजनीति और समाज को गहरे संकट में डाल सकता है।

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